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सुस्वागतम

आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

December 31, 2010

स्वागतम


अमूमन जब सुबह कॉलेज सवा सात बजे पहुंचते हैं तो इधर उधर देखने की फ़ुरसत नहीं होती, लपकते, फ़ांदते, हांफ़ते क्लास में भागे चले जाते हैं। पर कल की तो बात ही कुछ और थी। सुबह पौने आठ बजे पहुंचे, हलकी हलकी खुशनुमा ठंड में एक लंबी सांस ले ताजी हवा अपने नथुनों में भरनी चाही, नजर इधर उधर घुमायी तो पेड़ों के ऊपर सूरज धरती की बिंदिया सा चमकता नजर आया, एकदम गोल नारंगी। बम्बई में कब से इतनी ठंड पड़ने लग गयी कि सूरज महाराज आठ बजे आराम से हाजिरी बजा रहे हैं।

 
क्लास की तरफ़ मंथर गति से बढ़ते हुए ख्याल आया कि अरे! सर्दी को बम्बई में पसरे पूरा एक महीना होने को आया और हमने अभी तक घर आयी इस मेहमान का ठीक से स्वागत भी नहीं किया। मन में ठान लिया कि आज कुछ करना होगा लो जी ठंड में सरसों का साग और मकई की रोटी नहीं खायी तो ये तो सर्दी मैडम की तौहीन होगी। अरे, और कुछ नहीं तो कम से कम छिलकेवाली मूंगफ़ली तो ढूंढनी पड़ेगी। 


वापस लौटते हुए सोचा कि आज सब्जी मार्केट जाया जाए। सुना है आजकल सब्जी बहुत मंहगी हो रही है। सुना सिर्फ़ इस लिए है कि जब से शॉपिंग मॉल से सब्जी लेने का रिवाज चल पड़ा है तब से सब्जी वाले से तोलमोल करने का सुख छूट सा गया है।पतिदेव को शनिवार की छुट्टी होती है और शॉपिंग का जिम्मा अपने सर ले उन्हों ने हमारा काफ़ी बोझ कम कर दिया है। लेकिन इस आरामदेई के चलते पिछले कई महीनों से हम सिर्फ़ पत्ता गोभी, फ़ूल गोभी और शिमला मिर्च ही खा रहे हैं, वो भी कोल्ड सटोरेज की। लौकी की पतिदेव को एलर्जी है इस लिए छूते भी नहीं,टिंडों का न तो नाम सुना है उन्हों ने, न ही देखा है।


 पिछले हफ़्ते एक दिन खाना बनाने वाली नही आयी और हमने फ़ोन कर पति देव से कहा कि आते हुए किसी होटेल से कुछ लेते आयें। जनाब ने सोचा बीबी भी क्या याद करेगी, मक्की की रोटी और सरसों का साग ले चलते हैं, अपने लिए मुर्ग मुसल्लम। हम भी कृतार्थ हुए कि पतिदेव को कितना ख्याल है, जब खाने लगे तो रोटी से घी की धाराएं बह रही थीं, मुस्कुरा के बोले मैं ने खास बटरवाली मक्की की रोटी देने को कहा। हमने उनके इस बटरी लाड़ को प्लेट में निचोड़ते हुए एक कौर तोड़ा तो रोटी टूटती ही नहीं थी, रंग तो पीला ही था पर पता नहीं रोटी मैदे की थी या कोई अमरीकन मकई की। हाँ उसके साथ गाजर का हलवा जो लाया गया था वो बढ़िया था।   
  
सब्जी मार्केट में घुसने से पहले तय किया गया कि रौशन की दुकान पे जायेगें मक्की का आटा उसकी दुकान का सब से अच्छा होता है( और कोई दुकान हमें पता भी नहीं) दुकान में घुसे तो लगा पूरा पंजाब वहीं समाया हुआ है, मक्की का आटा, आटे के बिस्किट, सूजी के टोस्ट, गुड़ की चिक्की, अदरक की कतरनें सिरके में और पता नहीं क्या क्या लेते चले गये। वहां से निकले तो सोच में थे कि सब्जी मार्केट का रुख करें या उसके पहले ही सिगनल से मुड़ लें। असमंजस पार्किंग की वजह सा था, ज्यादातर सब्जी मार्केट के बाहर कार पार्क मिलना मुश्किल होता है, खैर आज तो मन बना ही लिया था, सो ओखली में सर देने को तैयार हो लिए। मेरी किस्मत अच्छी थी जो सब्जी मार्केट के बाहर दो मोटरसाइकलों के बीच कार मुश्किल से घुसा सके। थोड़ी कम ही सही पर जगह मिल गयी यही क्या कम था। मार्केट की शुरुवात में ही बड़े बड़े अमरुद देख कर मन ललचा गया, संतरे के दाम पूछे तो पता चला दस दस रुपये का एक संतरा और अमरूद तीस रुपये किलो। खैर अमरूद ले कर वहीं कार में डाले और वापस आये। लौकी, मैथी लेने का मन था। मैथी की दुकान पर पहुंचे तो एक महिला कह रही थी," भैया एक जूड़ी सरसों और एक जूड़ी पालक दे दो"। उसकी देखा देखी हमने भी सब्जी वाले से वही मांगा, दोनों जूड़ी दस दस रुपये, पतली पतली मूलियां दिखीं- पांच रुपये की एक्। सोचा सर्दियों में मूली के परांठे भी खाने जरूरी हैं, सो तीन मूलियाँ खरीदीं गयीं। उम्मीद थी कि मार्केट के अंदर सब्जी थोड़ी वाजिब दामों पर मिलेगी, लेकिन यहां भी लौकी मिली पच्चीस रुपये किलो, मुए कांटे वाले बैंगन भी पच्चीस रुपये थे। टमाटर साठ रुपये थे तो मटर पच्चीस रुपये किलो। 


खैर सब्जी ले कर जब हम वापस आये तो देख कर हैरान रह गये कि एक लंबी सी कार ठीक हमारी कार के पीछे लगी हुई है और ड्राइवर नदारत। इंतजार करते करते आधा घंटा गुजर गया। जैसे जैसे सूरज गरम होता जा रहा था और पेट में चूहों का क्रिकेट मैच शुरु हो गया हमारा पारा उसी रफ़्तार से ऊपर की तरफ़ छलांग लगा रहा था। मन तो कर रहा था कि इस नयी नवैली कार को लंबा सा स्क्रेच मार दें पर किसी तरह से खुद को ऐसा करने से रोक लिया। हम सोच ही रहे थे कि टो करने वाली गाड़ी आ जाए कि इतने में टो करने वाली गाड़ी आती दिखी, हम भाग कर उसके पास गये और बोले इस गाड़ी को टो कर के ले जाओ। ट्रेफ़िक कासंटेबल बड़ा हैरान था, ज्यादातर लोग बोलते है जाने दो, छोड़ दो, और यहां हम कह रहे थे कि आओ हम बताते है कौन सी गाड़ी नियम के खिलाफ़ पार्क कर खड़ी है। कांसटेबल ने फ़ट से टायर को लॉक लगवाया और हमारी गाड़ी निकलवाने का इंतजाम कर ही रहा था कि उस पकड़ी हुई गाड़ी का मालिक आ गया, और जैसी उम्मीद थी कहने लगा 'जाने दो'। हम लपक कर हवलदार के पास पहुंचे और धमकाते हुए बोले कि अगर उसने उस गाड़ी को जाने दिया तो हम उसके खिलाफ़ शिकायत दर्ज कर के आयेगें अभी के अभी और फ़ट से हवलदार का नाम और गाड़ी का नंबर नोट किया। गाड़ी की मालकिन हमें गालियां देने पर उतर आयी, उस कार के ड्राइवर ने किसी को फ़ोन लगा कर हवलदार की तरफ़ बढ़ा दिया। हवलदार के चेहरे का रंग बदलने लगा। हम समझ गये कोई नेता फ़ेता होगा, पर हम फ़िर भी हवलदार के सामने अड़े रहे कि चाहे किसी का भी फ़ोन हो तुम चालान काटो नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं। बेचारे के सामने कोई रास्ता नहीं था, वो हमसे भी डर रहा था कि हमने उसका नाम वगैरह नोट कर लिया है और हमारे लिए रास्ता बन जाने के बावजूद अब हम वहां से जाने को तैयार न थे। खैर उसने चालान दिया।रात को हमने बड़े मजे लेते हुए जब पतिदेव को पूरा किस्सा बताया तो बोले
"तुम कब दुनियादारी सीखोगी?"
 हमने पूछा "क्युं हमने कुछ गलत किया?"
"नहीं तुम सही थीं, लेकिन वो हवलदार तुम्हें उल्लु बना गया।"
"वो कैसे?"
बोले "उसने उस ड्राइवर का लाइसेंस लिया था?'
हमने यादाश्त पर जोर डालते हुए कहा ," हाँ लिया तो था पर देख कर वापस कर दिया"
बोले " तो फ़िर उस चालान का क्या मतलब?"
एक बार फ़िर मेरा पारा उछाल मारने लगा, निश्चय किया कि कल ही चौकी जा के उस हवलदार की खबर लूंगी, लेकिन थोड़ी देर बाद ही सोचा कि क्या फ़ायदा है, अब शायद वो हमें पहचानने से भी इनकार कर दिया, बेकार में अपनी ऊर्जा बेकार करने का कोई मतलब नहीं सो पूरे किस्से को जहन से उठा के बाहर फ़ैंक दिया।

वैसे इससे याद आया कि पिछले महीने मानखुर्द के सिगनल पे हमें ट्रैफ़िक हवलदार ने पकड़ा, हमने बड़ी रुखाई से कहा कि हमने सिगनल नहीं तोड़ा। लाइसेंस दिखाने को कहा तो हमें आदतन लाइसेंस में पचास का नोट रख कर दे दिया। ट्रैफ़िक हवलदार लड़का सा था, अभी अभी नौकरी पर लगा था। हमारे पचास रुपये देने पर बहुत आहत हुआ। पहली बार हम हवलदार देख रहे थे जो कह रहा था कि मुझे पचास रुपये नहीं चाहिए, आप मेरी वर्दी की इज्जत करें बस यहीं चाहते हैं।उसने न सिर्फ़ रिश्वत लेने से इंकार कर दिया बल्कि हमारा चालान भी नहीं काटा क्युं कि हमें नहीं लग रहा था कि हमने सिगनल तोड़ा। मन में बहुत आत्मग्लानी हुई। उस समय तो हम चले गये, देर हो रही थी। लेकिन बाद में जब हमने पूरे वाक्ये पर फ़िर से विचार किया तो लगा कि हमारी रुखाई और झुंझालाहट का असली कारण था कि हम जल्दी में थे और उसने हमें रोक लिया था, और हो सकता है कि सिगनल जंप किया ही हो। सो अगले दिन उसी समय हम फ़िर उस चौराहे पर गये, ये सोच के कि वो वहीं मिलेगा पर दूसरे दिन कोई और हवलदार खड़ा था। हमने पूछा "
वो कल वाला हवलदार कहां गया?"
 तो बोला "कौन सा हवलदार?"
"अरे वही जो जवान सा था।"
उसे हमारा जवाब बिल्कुल अच्छा नहीं लगा
" मैडम जवान तो हम सभी हैं"
हम कुछ कहते इतने में एक दूसरा हवलदार आ गया जो कल वाले का साथी लग रहा था। उसने पूछा कि हमें क्या काम है? हमने कहा कि कलवाले हवलदार से हमने ठीक से बात नहीं की थी और इस बात का हमें अफ़सोस है और हम उस से माफ़ी मांगने आये हैं।
उस दूसरे हवलदार की बत्तीसी खिल गयी कहने लगा,
" अरे मैडम कोई बात नहीं, हमारा पाला तो सभी तरह के लोगों से पड़ता है, हमें अब कोई फ़रक नहीं पड़ता"
हमारे फ़िर भी जोर डालने पर उसने कहा कि शायद उसकी ड्यूटी अगले चौराहे पर है, वैसे मैं आप का मैसेज दे दूंगा। हम अगले चौराहे तक घूम आये पर वो हवलदार हमें नहीं मिला, आशा कर रही हूँ कि मेरा माफ़ीनामा उसके पास पहुंच गया होगा।

खैर, तो शाम को सरसों का साग बनाने का प्रोग्राम था। बहुत दिन हो गये थे, याद नहीं आ रहा था सरसों का साग कैसे बनाते हैं, यादाश्त में सिर्फ़ मां के हाथ कुकर में मदानी चलाते नजर आ रहे थे बाकि कुछ याद नहीं आ रहा था। खुद को कोसा कैसी पंजाबन हूँ मैं, कोई सुनेगा तो क्या सोचेगा? जिसका कोई नहीं उसका नेट तो है ही:) सो नेट पर रेसिपी देखी, संजीव कपूर की रेसिपी---न न बेकार लगी, यू ट्युब पर गये और वाह रे वाह डॉट कॉम की रेसीपी अच्छी लगी, साग बहुत अच्छा बना। रात को पति देव से कहा पालक बनायी है, लेकिन वो कहां झांसे में आने वाले थे। 

बाजार में कहीं भी फ़ीका मावा न मिलने के कारण कल गाजर का हलवा नहीं बन सका। आज भी कहीं नहीं मिला, तब दिमाग की बत्ती जली कि भैया फ़ीका मावा मिलेगा भी नहीं, अरे उसी मावे की बर्फ़ी बना के हलवाई कम से कम दो सौ चालिस रुपये किलो के हिसाब से बेचेगा जब कि फ़ीका मावा वो किस भाव से बेच लेगा? सो शाम को बिन मावे के गाजर का हलवा बनाया, जय नेसले कंडेस्ड मिल्क्। ऑफ़िस से आते ही पतिदेव सीधा सुगंध का पीछा करते किचन में और हलवा के आनंद उठाते हुए बोले अच्छा बना है। हमने मुस्कुरा के मन में कहा,
जय शीत देवी आप का स्वागत है। 
आप सब को नव वर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएं
       
    

December 27, 2010

' धूप की कचहरी' मे हाजिर हों---2


कहते हैं कि बोलने वाले अक्सर दूसरों को सुन नहीं सकते, सिर्फ़ अपनी ही हांकते रहते हैं। यही हाल हम टीचरों का है, किसी और के भाषण में अपनी आखें खुली रखना बहुत मुश्किल होता है। तो जब श्रीमाली जी ने पहले वक्ता को बुलाया, हमने मन ही मन गिनना शुरु कर दिया कि मंच पर कितने वक्ता हैं और कितना समय बोलेगें। पहली ही पंक्ति में बैठ कर कहीं हमारी आखें बंद न होने लगें इस लिए एक कप चाय भी गटक लिए। दिमाग कहने लगा कि जब तुम्हें मालूम हैं कि दूसरों का भाषण शुरु होते ही तुम्हारी आखें बंद होने लगती हैं तो एकदम आगे बैठने की क्या जरूरत थी? क्या करें आदत से मजबूर है, बड़ी पुरानी बिमारी है आगे ही बैठने की। 

पहले वक्ता तो ठीक ठाक ही थे, फ़िर आयीं राजम जी जिनका जिक्र मैं पिछली पोस्ट में कर चुकी हूँ। उन्हें सुनना तो सुखद था ही, उनके बाद आये नंदलाल पाठक जी। हमें आश्चर्य तब हुआ जब उनके भी भाषण में हमारी पलक तक न झपकी। वो बोलते जा रहे थे और मैं सोच रही थी कि उनकी बातें हमारे ब्लोग जगत पर भी कितनी सटीक बैठती हैं।


उन्हीं के शब्दों में हिंदी कविता अब केवल हिंदी भाषाभाषी क्षेत्रों में नहीं लिखी जाती। बाढ़ की नदी की तरह देश और विदेश में दूर दूर तक फ़ैल गई है। बाढ़ के साथ पानी मटमैला भी हो जाता है। समालोचना जगत, प्रकाशन क्षेत्र, पत्रकार वर्ग सभी इससे प्रभावित हैं। काव्य मंचो पर अलग छीना झपटी चल रही है। कुछ समर्थ कवियों ने समीक्षकों के रूप में चारण पाल रखे हैं। कुछ पत्र पत्रिकाओं ने कुछ कवियों को गोद ले रखा है। ऐसे में मूल्यांकन का प्रश्न दलबंदी के दलदल में फ़ंस गया है……पुरस्कारों पर कुंडली मारे विषधर बैठे हैं। सारे जीवन का राजनीतिकरण हो गया है। हम अब व्यक्ति नहीं, वोटर ही वोटर हैं। राजनीति का काम है बांटना और वह अपना काम बड़ी तन्मयता से कर रही है…।


मुझे वर्धा में ब्लोगिंग में आचार सहिंता पर हुए सेमिनार की, हाल ही में हुए ब्लोगजगत में हाल ही में हुए विवादों की याद आ रही थी। नींद कैसे आती?

और अब चलते चलते, कुमार शैलेंद्र जी की एक और कविता

कबिरा बैठा लिए तराजू
कबिरा बैठा लिए तराजू, तौल रहा दुनियादारी।
जो भीतर से जितना हल्का, बाहर से उतना भारी॥

जो कबिरा को ही न जाने, खुद को भी कैसे पहचाने।
राम झरोखे बैठ कर देखे- दीन-धरम मज़हब के झगड़े,
पंडित मुल्ला व्यापारी॥

दर्शन के बाजार बड़े हैं। नीचे गिर कर लोग खड़े हैं।
मान मिले ईमान बेचकर- पूजा, वंदन या अभिनंदन,
सभी समर्पण बाज़ारी॥

नेकी तो बस बंजारा है, बदी आज का ध्रुवतारा है।
काग़ज से हल्की है काया दस से कहीं बड़ी है छाया,
गौरव गाथा अखबारी॥

बचपन बिकता, यौवन बिकता, अपनों का अपनापन बिकता
हर पलड़े पर सिक्का भारी- खुद सौदा, खुद ही सौदागर,
हम रिश्तों के व्यापारी॥   

December 26, 2010

' धूप की कचहरी' मे हाजिर हों

ये मेरा सौभाग्य है कि अनंत श्रीमाली जी मुझे नियमित रूप से हिन्दी साहित्यिक जगत के  विविध कार्यक्रमों में आमंत्रित करते रहते हैं और मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे अक्सर उनके निमंत्रण को अपनी व्यस्तता के चलते नजर अंदाज करना पड़ता है। पिछले हफ़्ते भी श्रीमाली जी का एस म एस आया, किसी किताब का विमोचन था और साथ में काव्य गोष्ठी। एक दो बार किताब के विमोचन के कार्यक्रमों में गयी हूँ पर कोई खास आनंद नहीं आया। मैं ने उन के एस म एस को अनदेखा कर दिया, फ़िर दो दिन पहले दोबारा एस म एस आया जिसे मैं ने कल सुबह ही खोला। इस बार उस में 'कुतुबनुमा मंच' का नाम जुड़ा था। कुतुबनुमा मंच  डा राजम नटराजन पिल्लै चलाती हैं, उन्हें मैं ने दो तीन बार मंच से बोलते सुना है।  डा राजम पिल्लै की प्रशसंको की लंबी लिस्ट में मेरा भी नाम है। मूलरुप से तमिल मातृभाषी राजम जी हिन्दी की प्रकांड पंडित हैं और हिन्दी साहित्य की दुनिया में उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है।


 हिन्दी में एम ए करने के बाद वो कई साल तक एस आई एस कॉलेज में हिन्दी विभाग की अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहीं और रिटायर होने के बाद कुतुबनुमा नाम से एक पत्रिका निकालनी शुरु की। पत्रिका की गुणवत्ता ऐसी है कि उसमें से कितने ही लेख पाठयक्रम में लगाये जा सकें। उनके व्यक्तित्व की जिस बात ने मेरा मन मोह लिया वो है उनका खिलंदड़ा अंदाज। गहरी से गहरी बात को भी वो ऐसे हंसी मजाक में कह जाती हैं कि हंसते हंसते लोगों की आखों में आसूँ और मन में उनके सामाजिक सरोकार के प्रति निष्ठा के प्रति आदरभाव  होते हैं।
राजम जी को सुनने का मौका और काव्य गोष्ठी, दो दो आकर्षण, दिल ने कहा "चल यार इन दोनों के लिए तो ये किताब का लोकार्पण भी झेल लेगें", दिमाग बोला पागल है क्या, पता है विले पार्ले कितनी दूर है? लेकिन हमेशा की तरह अंत में जीत दिल की ही हुई  




जब हमने एस म एस देखा उस समय लगभग साड़े ग्यारह बज रहे थे। पच्चीस दिसंबर का दिन, क्रिसमिस की छुट्टी, हम बड़ी कशमश में थे कि क्या करें। बड़ी हिचक के साथ पतिदेव को बताया कि कैसे उनकी छुट्टी की ऐसी तैसी करने का मन हो रहा है। खैर वो मान गये, छुट्टी के बाकी सारे प्लान फ़टाफ़ट रद्दी के टोकरी में डाले गये, सिर्फ़ एक प्लान को मटियामेट नहीं किया जा सकता था, बहू के मायके जाने का( बहू हमारी आधी क्रिश्चयन है और क्रिसमिस उनके लिए बड़ा त्यौहार है, हाजिरी लगाना जरूरी था)। हमने थोड़ा एडजस्ट करने को कहा, जैसे बम्बई की भीड़भाड़ वाली लोकल ट्रेन में लोग कहते हैं थोड़ा खिसको और तीन सीटों वाली बैंच पर चार लोग फ़िट हो जाते हैं। हमने भी वादा किया कि हम पूरे कार्यक्रम के लिए नहीं बैठेगें और वो भी हमारा थोड़ा देर से आना माफ़ कर दें, खैर तालमेल बैठ गयाचार बजे के कार्यक्रम के लिए 2 बजे निकल पड़े।



यूँ तो विले पार्ले एरिया हमारे लिए नया नहीं है लेकिन जब से ये स्काई वॉकस, फ़्लाइओवर्स बने हैं पूरे शहर की शक्ल ही बदल गयी है, खैर हम ज्यादा लेट नहीं थे, सवा चार बजे तक पहुंच गये। दरवाजे पर ही राजम जी और खन्ना जी खड़े थे। वो हमें ज्यादा अच्छे से नहीं जानती होगीं यही सोच कर हम सिर्फ़ अभिवादन कर हाल में प्रवेश कर गये और बायें तरफ़ की सबसे आगे वाली पंक्ति में जम गये। श्रीमाली जी मंच संचालक होने के कारण व्यस्त नजर आये, हम ने अभिवादन कर महज अपने आने की खबर उन्हें दे दी। इस लिए नहीं कि हम कोई तोप हैं, बस इस लिए कि उन्हें एहसास हो जाए कि उनका एस म एस बेकार नहीं हुआ, हम हाजिर हैं। जवाब में उन्हों ने भी कार्यक्रम के बीच में मंच से जब उन्हों ने हमारा परिचय देना शुरु किया तो एक क्षण के लिए तो हम चौंके और सकते में आ गये कि कहीं कुछ बोलने को तो नहीं कहने वाले? नीरज जी के यहां काव्य संध्या में देव मणी पांडे जी ने यूं ही अचानक हमें कविता पढ़ने के लिए बुला लिया था। जब हमने आश्चर्य जाहिर किया था तो बोले थे कि आप को नीरज जी ने निमंत्रित किया है तो आप को समझ जाना चाहिए था कि आप को कविता तो पढ़नी होगी। हमें अपनी बेवकूफ़ी पे उस दिन बहुत गुस्सा आया था। खैर, श्रीमाली जी ने जब हमारा परिचय देने के बाद सिर्फ़ हमारे आने का आभार प्रकट किया तो हमारे चेहरे पर ऐसे ही भाव थे कि जान बची और लाखों पाये।



सामने मंच पर लगे बैनर पर लिखा था कुमार शैलेन्द्र के गीत संग्रह 
 ' धूप की कचहरी'   का लोकार्पण समारोह्। मन में सोचा, हम्म्म्म, नाम तो इंट्रस्टिंग है, 'धूप की कचहरी' । अभी कार्यक्रम शुरु होने में कुछ देर थी, अध्यक्ष का पदभार संभालने वाले श्री नंद किशोर नौटियाल जी अभी तक नहीं आये थे। सो टाइम पास के लिए हमने  दायें तरफ़ की पहली पंक्ति पर विराजमान महानुभावों को देख अंदाजा लगाना शुरु किया कि इसमें कुमार शैलेन्द्र कौन से होंगें। नौटियाल नाम जाना पहचाना सा लग रहा था लेकिन शक्ल याद नहीं आ रही थी। जान पहचान न होते हुए भी लक्ष्मी यादव जी ने बड़े स्नेह से हमारे आने पर प्रसन्नता दिखाई और तभी कार्यक्रम शुरु हो गया।



राजम जी के व्यक्तव्य पर एक बार फ़िर निसार हुए(पैसा वसूल वाली बात), यहां आने के बाद ही पता चला कि जिस किताब का लोकार्पण होने जा रहा है उसे कुतुबनुमा ने प्रकाशित किया है, मतलब कि अब राजम जी प्रकाशक भी हो गयी हैं। अपने व्यक्तव्य में उन्हों ने नौटियाल जी की खूब चुटकी ली जो संपादक भी हैं। नौटियाल जी ने भी अपने अध्यक्षीय संबोधन में राजम जी को बक्शा नहीं और उनकी हर चुटकी का जवाब उसी अंदाज में दिया। डां करुणा शंकर उपाध्याय, जो मुंबई विश्व विध्यालय में बतौर रीडर कार्यरत हैं, उन्हों ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की। जैसे जैसे  वो पुस्तक के बारे में बताते गये वैसे वैसे हमारी उस पुस्तक को तभी का तभी पढ़ने की इच्छा बलवती होती गयी। किताब में करीब अस्सी गीत और कविताएं हैं और बीच बीच में मुक्तक हैं। एक झलक आप भी देखिए


" याचक बन कर दुख आया फ़िर मन के द्वारे।
 दान कर दिये मैं ने भी सुख के पल सारे॥"

" एक पंख पर पर्वत ढोए,
एक पंख पर स्वपन संजोए,
कितनी दूर उड़ेगा रे मनपाखी॥"

"ढूंढ रहे मेले में अपनी ही परछाईं,
 सूनेपन से शायद युग युग का नाता है"

"सबको ही तलाश है,
उससे ज्यादा की,
जितना जिसके पास है"

"टुकड़ा टुकड़ा जी रहा है ,
आदमी कितना बिखर कर ।
जिंदगी तू क्या करेगी,
एक पल सज कर संवर कर्॥

धज्जियां कितनी उड़ी हैं,
राह बिन मोड़े मुड़ी हैं,
 चाह की हर इक चिता पर, आस ही जिंदा खड़ी है।
आत्मा मर जाए तो क्या, तन टिका रहता उमर भर॥"

" मैं जिन्दगी को ढूंढता रहा, जिन्दगी मुझे ढूंढती रही।
उम्र की मशाल बुझ गयी, न मैं मिला न जिंदगी मिली।। "


हम एक एक मुक्तक सुनते जाते थे और नीरज जी को याद करते जा रहे थे। वो भी अगर वहां होते तो बहुत खुश होते। मन के भाव बिल्कुल ऐसे थे जैसे बचपन में दो दोस्त एक साथ बैठे हों, एक दोस्त लॉलीपॉप का स्वाद ले रहा हो और उसे लगे कि ये अलौकिक आनंद अपने मित्र के साथ बांटना मजेदार रहेगा और वो अपनी लॉलीपॉप उसकी तरफ़ बढ़ा दे कि तुम भी चखो)


 लोकार्पण का कार्यक्रम समाप्त होते होते इतना वक्त लग गया कि काव्य गोष्ठी की शुरुवात की बस दो ही कविताएं सुन पायी और सात बज गये, मुझे अपना दूसरा वादा निभाना था। सोच रही थी कि अक्सर ऐसे मौकों पर जिस किताब की मुंह दिखाई होती है उसे बेचने के लिए कांउटर भी बना होता है तो जल्दी से एक प्रति खरीद कर वापसी की राह पकड़ें। इतने में राजम जी एक प्रति लिए हुए आयी और मेरे पास बैठी महिला को देनी चाही, उस महिला ने कहा उसके पास पहले से है एक कॉपी, हमने अच्छा मौका समझ राजम की तरफ़ कदम बढ़ाया तो हमारे मन की बात समझते हुए उन्हों ने वो प्रति हमें थमा दी। आभार व्यक्त करते हुए हम बाहर आ गये। वाशी पहुंच स्टीरयिंग व्हील पति के हवाले कर हम भागती कार में सड़क के लैम्प पोस्टों से आती रौशनी में किताब पढ़ने लगे। 
आप बोर न हो रहे हों तो उनकी एक कविता सुना दूँ, जो मुझे बहुत अच्छी लगी?

हमें भी ख़बर है

हमें भी ख़बर है, तुम्हें भी ख़बर है,
ये जिसकी ख़बर है वो बेख़बर है॥

जमीं तो वही है, वही आस्मां है,
मगर रंग मिट्टी का बदला हुआ है,
नजर बेनजर क्यों?ज़ुबां बेज़ुबां क्यों?
ये चारों तरफ़ बस धुंआ ही धुआं क्यों?
यहां घुट रहा दम, यहां मौत-मातम,
यहां ज़िंदगी ढो रही हर उमर है॥

वतन भी वही, हमवतन भी वही हैं।
मगर दिल की धड़कन मे सरगम नहीं है,
यहां ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं, मरहम नहीं है,
बिना राह के रहनुमा कम नहीं हैं।
ये इंसा में वहशत, ये अपनों से दहशत,
अब अपने ही आंगन में लुटने का डर है॥

मुखौटों की मंडी में आबाद चेहरे,
सियासत की खेती, गुनाहों के पहरे
करे कौन इंसाफ़ मुंसिफ़ ही बहरे,
ये मीनार कालिख की गुंबद सुनहरे
यहां मौत जिंदा है, इंसा दरिंदा है,
ये पूरा शहर पत्थरों का नगर है॥   


अभी बहुत से रोचक किस्से बाकी है इस सांझ के लेकिन पहले आप ये बताइए कि कहीं बोर तो नहीं हो रहे?  

October 14, 2010

वर्धा यात्रा ने बना दिया गाय, वर्ना आदमी तो हम भी थे काम के

समीर जी ये रही धनेश की फ़ोटो। 

फ़ोटो लेती रचना जी, फ़ोन पर सिद्धार्थ जी, धनेश जोशी, और गायत्री 
ले हाथों में हाथ ओ साथी चलSSSSS
कविता जी और मेरे हाथ हरसिंगार के फ़ूलों के साथ 
धनेश से हमें पता लग चुका था कि शैलेश भारतवासी, सुरेश चिपलूनकर जी, जय कुमार झा, जाकिर अली, और अविनाश जी एक रात पहले ही आ चुके हैं। कविता जी तो पहले ही से वहां थीं। सुबह के छ: बज चुके थे पर इनमें से किसी का कोई अता पता नहीं था। शैलेश और अविनाश जी से मैं पहले भी मिल चुकी थी, एक बार मन हुआ कि जा के इनका और कविता जी का दरवाजा खटखटा दें, फ़िर न जाने क्या सोच के खुद को रोक लिया। उसी होस्टल में रह रहे विश्वविधालय के टीचर्स एक एक कर आ रहे थे और सुबह की चाय का आनंद ले रहे थे पर ब्लागर मित्र सब गायब थे जिनका हमें इंतजार था। खैर सबसे पहले सुरेश चिपलूनकर जी अवतरित हुए और हम ने लगभग उछलते हुए प्रश्नवाचक लहजे में पुकारा सुरेश चिपलूनकर जीईईईई। वो बिचारे अभी अभी आंख मलते हुए आ रहे थे इतनी जोर से उनका नाम पुकारा गया तो थोड़े हिल गये। एक मिनिट मेरी तरफ़ देखा और मुस्कुरा दिये। हमारे मन में पहला विचार जो आया वो था अरे ये आदमी मुस्कुराता भी है? ब्लोग पर तो सदा आग उगलते ही देखा। इतने में जय कुमार झा साहब भी आ गये, इनसे हमारा कोई परिचय नहीं था न ही इनके ब्लोग से हम वाकिफ़ थे।

दुआ सलाम और बातों के दौर में धनेश कब स्टेशन खिसक गया पता ही न चला। गाड़ी आ कर सीढ़ियों के पास लगी तो पता चला कि एक खेप आ गयी। गाड़ी से अजित गुप्ता जी उतरीं। हम सेल्फ़ अपोंनटेड रिसेपशन कमैटी बन गये और अजित जी का स्वागत करने के लिए आगे बढ़ गये। वैसे हम खुद भी हैरान थे अपने इस व्यव्हार  से। हम तो शुरु से बहुत संकोची रहे हैं ये हमें क्या हो रहा था? अजित जी के साथ दो मेहमान और थे और हमें विश्वास नहीं होता कि हम संजीत त्रिपाठी को नहीं पहचान पाये थे। अरे, वो फ़ोटो में जैसा दिखता है उस से कहीं ज्यादा गोरा और पतला है। एक बार संजीत को पहचान लिया तो साथ में महेश सिन्हा जी हैं पता ही था। एक बार फ़िर परिचय और सुबह की चाय का दौर चला पर पता नहीं क्युं हम आज चाय पीने के मूड में नहीं थे। बम्बई में तो सुबह चाय की प्याली से होती है पर यहां… पता नहीं क्या हुआ? हम इतने उत्सुक थे सब से मिलने के लिए( नहीं, सही शब्द तो एक्साइटेड है) कि भूख प्यास सब भूल चुके थे( याद है न हमने एक रात पहले भी खाना नहीं खाया हुआ था)

थोड़ी ही देर में मेहमानों की दूसरी और अंतिम खैप आयी जिसमें अनूप जी, विवेक, इत्यादि लोग उतरे। एक बार फ़िर मैं और अविनाश जी दौड़ पड़े मेहमानों का स्वागत करने के लिए। अनूप जी को तो मैं उनकी तस्वीरों से जानती थी, उन्हों ने भी पहचानने में देर नहीं लगाई। विवेक को भी हम पहचान गये, लेकिन उनके साथ आये एक बहुत आकर्षक, शालीन युवक को हम पहचान नहीं पाये। पता चला ये भड़ास वाला यशवंत है। येएएएएएएए? एक बार फ़िर चश्मा साफ़ किया। हमारे ब्लोगिंग के शुरुवाती दिनों में भड़ास के बारे में गढ़ी नकारत्मक इमेज आखों के सामने घूम गयी। हमने तो सोचा था कि भड़ास जैसा ब्लोग लिखने वाला कोई विलेन टाइप खड़ूस बंदा होगा, पर ये बंदा तो बड़ी शालीनता से सबसे मिल रहा था। खैर हमसे ज्यादा बात तो होने का कोई सवाल ही नहीं था क्युं कि वो न हमें जानता था न उसने कभी हमारे बारे में सुना था। तब तक सिद्धार्थ जी भी आ गये और इतनी गर्मजोशी से हम सब से मिले कि मन की सारी हिचकिचाहट जाती रही। कुछ ही देर में कविता जी और रचना जी (सिद्धार्थ जी की पत्नी) और सत्यार्थ ( उनका बेटा और वहां पर सबसे छोटा ब्लोगर) भी आ गये। सत्यार्थ इतना स्मार्ट बच्चा है कि उस से बतियाते हुए समय कैसे गुजर जाए पता ही नहीं चलता।

अनूप जी ब्लोगर कम और रिपोर्टर ज्यादा लग रहे थे, लैपटॉप और कैमरे से लैस, आते ही उन्हों ने सब की फ़ोटो लेना शुरु कर दिया। कविता जी कहती रह गयी कि अभी तो मैं सो कर उठी हूँ पर वो कहां मानने वाले थे। कविता जी, अजित जी और मैं ऐसे घुलमिल गयीं जैसे बरसों  से सखियां हों।

एक और सुखद आश्चर्य हमारे लिए था विवेक सिंह। मुझे याद है कुछ महीने पहले चिठ्ठा चर्चा पर उसकी पोस्ट पढ़ा करती थी और उसकी टिप्पणियां भी किसी कोल्हापुर की मिर्ची से कम न होती थीं पर ये जो बंदा हम से बतिया रहा था( नहीं नहीं शरमा रहा था) उसके तो गले से आवाज ही नहीं निकलती थी। उस से ज्यादा ऊंची आवाज मेरी और कविता जी की थी। मैं और कविता जी एक साथ बोलीं कि विवेक तुम्हें देख तो मन में वात्सल्य उमड़ता है। उसने एक शरमीली सी मुस्कुराहट के साथ हम दोनों के वात्सल्य को स्वीकार किया। थैंक्यू विवेक्।  

सभाग्रह का विवरण आप दूसरों से सुन ही चुके हैं। शाम को काव्य संध्या का आयोजन था। करीब सात बजे वही खुले चबुतरे पर कविताओं का आनंद लूटने का निर्णय हुआ। अब वहां हवा तो थी पर लाइट थोड़ी कम थी। कविताओं का आनंद देने और लूटने आलोक धन्वा जी और दूसरे टीचर्स भी आ गये। दर असल वो लोग हम सब के साथ ऐसे घुल मिल गये जैसे दूध में शक्कर। एहसास ही नहीं होता था  कि वो लोग ब्लोगर नहीं हैं। उनमें से एक ने कविता पाठ करने के लिए जेब से टार्च निकाली और फ़िर तो जिस को कविता पढ़नी होती थी वो टार्च उसके पास पहुंच जाती थी। कविताओं के बाद गप्पों का दौर चला । किसी का मन नहीं कर रहा था सोने जाने के लिए। खूब मजा आया…अनूप जी, जो सबकी मौज लेते रहते है, उनकी कविता जी ने ऐसी मौजिया खबर ली कि उनसे कुछ बोलते न बना।

एक एक कर सब अपने अपने कमरों की तरफ़ बढ़ गये, सिर्फ़ कुछ लोग ही बच गये थे। शैलेश, यशवंत और गायत्री मेरी बायीं तरफ़ बैठे गपिया रहे थे और कविता जी, अजित जी और ॠषभ जी मेरे दायीं तरफ़ थे। अचानक मैं मुड़ी और यशवंत से कहा मुझे आप से कुछ पूछना है। अब ये उनके लिए अप्रत्याशित था, उन्हों ने हमें टालने के लिए कहा कि सुबह पूछ लीजिएगा। शैलेष भांप रहा था कि यशवंत हमें जानते नहीं इस लिए शायद संकोच कर रहे हैं उसने यशवंत के आगे हमारी तारीफ़ के पुल बांधने शुरु ही किए थे कि यशवंत ने बात काट दी और कहा अच्छा अच्छा आप पूछिए क्या पूछना है? हमने मन ही मन यशवंत को कोसा, अपनी तारीफ़ सुनने का एक मौका जो हाथ से चला गया, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से बोले कि हम बहुत देर से देख रहे हैं कि आप बहुत ही संस्कारी और शालीन व्यक्ति हैं फ़िर आप एक भड़ास पर एक बिगड़े हुए, गाली बकते हुए ऐसे व्यक्ति की इमेज क्युं प्रस्तुत करते हैं जिस से लोग बात करते हुए भी डरें। वो थोड़ा मुस्कुराया और करीब पंद्रह मिनिट तक डिटेल में बताता रहा कि भड़ास अब ब्लोग नहीं रहा एक वेब पोर्टल बन चुका है और अब बिल्कुल वैसा नहीं जैसा पहले था। अपने निजी जी्वन के बारे में काफ़ी कुछ बताया, उसकी बातें सुन हमें सत्तर के दशक का यंग ऐंग्री अमिताभ बच्चन याद आ रहा था। हमने उसे बिन मांगी ढेर सारी सलाहें दी जिसकी उसे बिल्कुल जरूरत नहीं थी पर हम अपनी आदत से मजबूर हैं। उसने अच्छे संस्कारी बच्चे की तरह वो सब सलाहें सहेज कर जेब में रख लीं। दूसरे दिन तक हम अच्छे दोस्त बन गये थे और यशवंत ने अपने मंहगे मोबाइल से जो फ़ोटो खींचे थे उसमें से कई हमसे साझा किये।थैंक्यू यशवंत

फ़िर शैलेश भारतवासी से गपियाये, हिन्द युगम  की  भविष्य की योजनाओं के बारे में       जाना। अच्छा मजेदार बात ये है कि हमारे ब्लोगिंग के शुरुवाती दौर में जितनी बहस/ झगड़ा हिन्द युगम के नियमों को ले कर मैं ने शैलेश से किया है उतना किसी और ने मुझसे किया होता तो मैं उस से दूर रहती, लेकिन शैलेश आज तक न सिर्फ़ हमें झेलता है बल्कि सम्मान भी देता है। यहां तक कि हिन्द युगम की आगामी योजनाओं के बारे में भी वो हमारी राय जानना चाहता था। हर बार जब भी वो हमें मिलता है उसके पास हमें देने के लिए कोई न कोई उपहार जरूर होता है, इस बार भी उसने कुछ पत्रिकाएं और सी डीस  भेंट की। शैलेष मैं तुम्हारे स्नेह से अभीभूत हूँ।

संजय बैंगानी को मैं पहली बार देख रही थी। वो अपनी उम्र से करीब दस साल छोटे लगते हैं( उनकी उम्र आप उनसे ही पूछ लीजिएगा मुझे तो सिर्फ़ सत्ताइस तक के लगे…J) उनसे भी तरकश को ले कर कई बातें हुईं। अजित जी ने उनसे वैब साइट बनाने की पैचीदगियों पर चर्चा की और हम भी लाभान्वित हुए।
 प्रवीण पाण्डे जी से मेरी पहली मुलाकात पिछले महीने बैंगलोर में हुई थी। इस लिए उनके बारे में अगली पोस्ट में।
 
प्रियंकर पालिवाल भी अपनी फ़ोटो में जितने मोटे और अधेड़ उम्र के लगते है वास्तव में उसके आधे भी नहीं। वो साहित्यकार हैं और हम उस मामले में अप्रवासी से। उनसे हमारी बातचीत हुई जब सिद्धार्थ जी ने चार ग्रुप बना दिये थे आचार संहिता पर विचार विमर्श करने के लिए। हम जो पेपर्स बना कर ले गये थे हमने ग्रुप के सामने रखे। रवींद्र जी और मेरे पेपर में बहुत समानता थी सो सारे पोइंटस मिला के एक पेपर किया गया। उसके अलावा हम बलोग एथिक्स पर हुई मनोवैज्ञानिक शोध पर भी एक पेपर तैयार कर के ले गये थे। निश्चित ये किया गया कि अगर समय रहा तो हमारे ग्रुप में से दो पेपर पढ़े जायेगें। प्रियंकर जी से ज्यादा बात तो नहीं हुई लेकिन दूसरे दिन विदा लेते समय उनका ये कहना कि वो हमारी शख्सियत से प्रभावित हुए हैं हमारी सुनहरी यादों का हिस्सा बन गया।

इसी तरह से आलोक धन्वा जी का मैं ने नाम भी नहीं सुना हुआ था। जब उनके परिचय में कहा गया कि वो कवि हैं तो हमने कोई खास ध्यान न दिया। हाँ इस बात पर हमारा ध्यान जरूर गया कि इस उम्र में भी( करीब अस्सी के तो होगें) और इतनी कमजोर काया के बावजूद उनमें स्फ़ूर्ती और शक्ती भरपूर है। मुझे नहीं याद आता कि मैं ने उन्हें अपनी कुर्सी पर दो मिनिट से ज्यादा बैठे देखा हो। बात बात पर वो उठ कर अपने कमरे की तरफ़ दौड़ते जाते थे और कुछ न कुछ लाते रहते थे। मुझे उनके साथ बैठने का मौका मिला दूसरे दिन जब हमारे वहां से निकलने में मुश्कि
मेरा छुटकु ब्लोगर दोस्त सत्यार्थ अपनी असिस्टेंट रचना जी के साथ 
ल से एक घंटा रह गया था। सत्यार्थ को चोट लग गयी थी। वो दौड़े हुए गये और बेन्डेड ले आये साथ में चॉकलेट भी। हमारे मुंह से बेसाख्ता निकल गया और हमारे लिए उन्हों ने सुन लिया लेकिन सोचा कि शायद पास बैठी गायत्री ने कहा है, आखिरकार वो सबसे छोटी जो थी ग्रुप में। वो फ़िर दौड़े गये और एक और चॉकलेट ले आये। हम तुनके कि मांगी तो हमने थी। उनके पास और चॉकलेट नहीं थी। बड़े स्नेह से मेरे पास आ के बैठे और बोले आप को अगली बार ले दूंगा…हा हा हा। अब हमसे असली मानों में परिचय लिया दिया गया। हमने उन्हें बताया कि हम उनकी रचनाओं से वाकिफ़ नहीं ( भले पूरा परिसर उनकी रचनाओं का गुणगान कर रहा था) लेकिन अब वापस जा कर पढ़ेंगें। किसी बात पर उन्हों ने कहा आप और हम अब इस उम्र में…हम फ़िर तुनक गये ( उम्र होगी जी आप की यहां तो दिल बच्चा है जी) वो हंस दिये। जब जाने का समय आया तो अपनी वर्द्धावस्था के बावजूद वो सात आठ सीढ़ियां उतर कर हमें विदा करने आये और कहने लगे मैं ने आप जैसा सरल व्यक्तित्व नहीं देखा मैं आप को कभी भूल नहीं पाऊंगा और जब भी बम्बई आया आप से जरूर संपर्क करूंगा। ऐसा व्यक्ति जो शायद सेलेब्रेटी है वो ऐसा कहे सोच कर ही हम नतमस्तक हो जाते हैं। उनकी आवाज अब भी मेरे कानों में गूंज रही है।

लौटने का समय जैसे जैसे नजदीक आ रहा था हम चिंतित हो रहे थे। करीब पांच बार सिद्धार्थ जी को याद दिलाया कि मेरी ट्रेन साढ़े छ: बजे की है। बम्बइया हिसाब से हम वहां से पांच बजे ही निकलने को तैयार हो गये थे। सिद्धार्थ जी ने आश्वस्त किया कि एक छात्र आप को गाड़ी में बिठा कर आयेगा। आप निश्चिंत हो कर चाय पियें। हम सब के साथ फ़ोटो खिचाने में मस्त हो गये। करीब साढ़े पांच/छ: बजे जब विदा लेने लगे तो सिद्धार्थ जी ने  हमारी तरफ़ एक डिब्बा बढ़ाते हुए कहा ये आप का रात का खाना। उस समय की खुशी और उस समय के एहसास ब्यां करने के लिए तो मेरे पास शब्द ही नहीं। ऐसा लगा मानो मैं इंदौर से अपने छोटे भाई के घर से लौट रही हूँ। इस वर्धा यात्रा ने तो मुझे गाय बना दिया है। हर रोज अपनी तन्हाइयों में मैं इन यादों को निकाल जुगाली करती हूँ ।

 सुना था लेकिन अब एहसास भी हो रहा है कि लेखन भी जिम जाने जैसा है। जब तक जाते रहो शरीर चुस्त दुरुस्त रहता है, जरा सा भी आलस किया और कुछ दिन के लिए छोड़ा तो फ़िर दोबारा खुद को जिम में ले जाना बड़ी टेड़ी खीर है। लेखन का भी यही हाल है। मेरी लास्ट पोस्ट जून में आयी थी। उसके बाद ऐसा नहीं कि मेरे पास लिखने को कुछ नहीं था, अगर कहूं कि वक्त नहीं मिला तो भी सरासर झूठ होगा बस कलम को जंग लग गया था। वर्धा मीट में अनूप जी ने परिवार के सबसे वरिष्ठ सदस्य की तरह स्नेह भरी डांट लगायी, फ़िर से कलम उठाने के लिए प्रेरित किया। अपने परिचय में जब हम ने कुछ ज्यादा कहने से संकोच किया तो उन्हों ने मेरी लिखी एक पोस्ट का जिक्र करते हुए याद दिलाया कि किसी जमाने में हम ठीक ठाक लिख लेते थे और अब भी अगर फ़िर से लिखना शुरु कर दें तो ठीक ठाक लिख ही लेगें। तो अनूप जी ये पोस्ट आप को समर्पित- अच्छी है या बुरी आप की किस्मत्…।J
  
निकलने से एक घंटा पहले गपियाते साथी
गायत्री, सिद्धार्थ जी और रचना जी और…:) 
संजीत, सिद्धार्थ और विवेक, पीछे हैं महेश सिन्हा जी
सभाग्रह से चिठ्ठाचर्चा पर जाती पहली पोस्ट( अनूप जी और विवेक) 

तनिक रुको भाई आ रहे हैं, बताते हैं बताते हैं


संगोष्ठी से करीब 15 दिन पहले पता चला कि सिद्धार्थ जी ने ब्लोग एथिक्स पर किसी संगोष्ठी का आयोजन किया है। सिद्धार्थ जी ने जो संगोष्ठी इलाहाबाद में की थी उसकी रिपोर्ट्स अभी तक हमारे दिमाग में तरो ताजा थीं। ब्लोगजगत के दिग्गज ब्लोगरों को रु ब रु हो कर सुना जा सकता है इस ख्याल से ही रोमांच हो आया। हमने अपने संकोच को दरकिनार करते हुए सिद्धार्थ जी को मेल लिखा और संगोष्ठी में शामिल होने की अनुमति मांगी। उन्हों ने ब्लोगिंग की स्पीड से जवाब देते हुए हमें पेपर प्रेसेंट करने का निमंत्रण पत्र भेज दिया। तारीखें थीं 9 और दस ओक्टोबर्। ग्यारह ओक्टोबर से हमारे कॉलेज में परिक्षाएं शुरु होने वाली थीं और परिक्षाओं के दौरान किसी की भी छुट्टी मंजूर नहीं होती है। संगोष्ठी का निमंत्रण पत्र भी कॉलेज के नाम नहीं आया हुआ था। जैसे तैसे कर के प्रिंसिपल को एक दिन की छुट्टी के लिए मनाया।

हमने जिंदगी में कभी किसी अन्जान शहर के लिए अकेले सफ़र नहीं किया। मन में थोड़ी धुकधुक थी। लेकिन पति के सामने हम बहादुरी का मुखौटा पहने रहे। मेरी घबराहट थोड़ी और बढ़ गयी जब एक मित्र ने कहा मैं तो नहीं जा रहा पर यदि आप जा रही हैं तो संभल कर जाइयेगा, सिद्धार्थ का इंतजाम पता नहीं कैसा हो, अपना सब इंतजाम कर के जाइयेगा। हम और कन्फ़्युज्ड हो गये। खैर हमारे मन का रोमांच हमारे डर से ज्यादा ताकतवर निकला और हम आठ की दोपहर को गाड़ी चढ़ गये। 


थ्री टायर ए सी में ए सी की हवा के साथ कॉकरोच रेलवे सेवा की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिले। हम सीधे कॉलेज से ट्रेन में जा बैठे थे, खाना खाने का भी वक्त नहीं मिला था, सो पेट में चूहे दौड़ रहे थे। खुद को कोस रहे थे कि पैकिंग लास्ट मिनिट तक क्युं टाली गयी। नासिक से दो पैसेंजर चढ़े कोई आठ बजे के करीब, उनमें से एक करीब तीस साल का रहा होगा और दूसरा करीब 45 साल का। ऐसा लगता था कि ये दोनों नियमित इस रूट पर सफ़र करते हैं। खाने का ऑर्डर देते समय जान पहचान और बातों का सिलसिला शुरु हुआ। साढ़े नौ बजे खाना खाने लगे तो पता नहीं कहां से कॉकरोचों की एक पूरी सेना अपना हिस्सा वसूलने को तैयार नजर आयी। जैसे तैसे हमने उनसे बचा कर दो निवाले गले के हवाले किये और बाकी खाना फ़ेंक दिया। इतने में सिद्धार्थ जी का फ़ोन आ गया कि मेरी ट्रेन कितने बजे वर्धा पहुंचती है। हमने सकुचाते हुए उन्हें बताया कि हम सुबह 4 बजे वर्धा पहुंच जायेगें और वो चिन्ता न करें हम दो घंटे वेटिंग रूम में गुजार लेगें। लेकिन उन्हों ने कहा कि नहीं हमें लेने के लिए चार बजे एक विध्यार्थी आ जायेगा। जान में जान आयी।
 वो नासिक से चढ़ा युवा सहयात्री किसी इंटरव्यु की तैयारी कर रहा था, जनरल नॉलेज के प्रश्न। बीच बीच में अगर उसे किसी प्रश्न का उत्तर नहीं आता तो अपने साथी से पूछता जाता। धीरे धीरे हम भी उन प्रश्नों में रस लेने लगे। उसके पास करीब डेढ़ सौ प्रश्न थे, हम शर्मसार हुए जा रहे थे कि हमें उनमें से आधे से ज्यादा( या शायद उससे भी ज्यादा॥J) सवालों के जवाब नहीं मालूम थे। उसने चहक कर कहा आप हिंदी विश्वविधालय जा रही हैं तो इस प्रश्न का उत्तर तो आप को पता ही होगा। प्रश्न में उसने किसी सच्चिदानंद कवि का नाम बता कर कहा ये साहित्य में किस नाम से प्रसिद्ध हैं। हमें याद आया कि वर्द्धा में अभी 2 और 3 ओक्टोबर को इसी कवि के बारे में कोई कार्यक्रम हुआ था। ऐसा लग रहा था कि इसका जवाब अज्ञेय होगा लेकिन फ़िर भी पक्का कर लेना चाह्ते थे। हमने संजीत नामक लाइफ़ लाइन का इस्तेमाल किया। जवाब सही था। सुबह होते होते आंख लग गयी।
 
सुबह करीब साढ़े तीन बजे अगर सिद्धार्थ जी के विध्यार्थी धनेश का फ़ोन न आया होता तो हम शायद नींद में नागपुर पहुंच जाते। सुबह की ठंडी ठंडी ब्यार में जब चार बजे स्टेशन पर उतरे तो पांच मिनिट में धनेश हमारे सामने खड़ा था। एक और मेहमान जो रात को डेढ बजे आ कर वेटिंग रूम में सो रहा था उसे लिया और दस मिनिट में केम्पस पहुंच गये। ठहरने की व्यवस्था इतनी बढ़िया था कि वापस आने का मन न करे। धनेश को उम्मीद थी कि हम जा कर अपने कमरे में सो जायेगें लेकिन हमारी नींद तो केम्पस की खूबसूरती ने चुरा ली। दूसरों के उठने में अभी वक्त था सो हम उस स्लेटी अंधे्रे में टहलने के लिए निकल पड़े। बिचारा धनेश हमारे साथ हो लिया , साथ साथ में बताता जा रहा था कि यहां कोबरा भी निकलते हैं, हमने डरने से इंकार कर दिया। साढ़े पांच बजे तक तो हम स्नान कर तैयार थे उस के साथ मेहमानों की दूसरी खैप को स्टेशन से लाने के लिए। लेकिन फ़िर गाड़ी में जगह की कमी को देखते हुए हमने स्टेशन जाने का इरादा छोड़ दिया। धनेश ने सोचा होगा इस चिपकू मेहमान से जान बची तो लाखों पाये।

बाकी ब्रेक के बाद्…:)

June 01, 2010

आई लव माय इंडिया

Inclusion of the Rural Poor (Courtsey DNA-1-06-2010)







आज के डी एन ए अखबार में छपी एक लेख के साथ ये तस्वीर वर्तमान भारत की सही छवि है, है न? शायद  बैल महाराज और मुर्गा( वही दिख रहा है न?) बिटवा से कह रहे हैं कि भाई हमें भी भारत मेट्रिमोनी डाट कॉम में रजिस्ट्र करवाई दो। अपनी पहली पोस्ट पर आयी इत्ती सारी टिप्पणियां देख बच्चा आश्चर्यचकित है, है न? मुझे तो ऐसा ही लगा, आप को क्या लगता है?
वैसे असली खबर ये है कि राजीव श्रीनिवासन जी कह रहे हैं कि वित्तिय सेवायें वाजिब दामों पे सबसे गरीब तबके तक गांव गांव तक पहुंचनी चाहियें तभी भारत की आर्थिक व्यवस्था मजबूत होगी। उदाहरण के तौर पर वो बता रहे हैं कि भारतीय डाक सेवा इसमें एक बहुत बड़ा योगदान कर सकती है। इस समय दो सौ मिलियन से भी ज्यादा लोगों के डाकघरों में बचत खाते हैं और 1995 में जब डाक घर ने 10,000 रुपये तक की जीवन बीमा पोलिसी महज एक रुपये प्रति दिन प्रिमियम पर बेचनी शुरु की तो कुछ ही महीनों में 12 मिलियन से ज्यादा पोलिसीस गांव की जनता ने खरीद लीं, और हर महीने डाक घर kए मिलियन से ज्यादा पोलिसीस बेच रहे हैं।
इसका मतलब ये है कि गांव की जनता अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए क्या करना है ये तो जानती है लेकिन उनकी पहुंच के बाहर होने की वजह से मन मसौस के रह जाती है। मजेदार बात ये है कि इससे ये भी पता चल रहा है कि जनता अपने भविष्य की सुरक्षा का इंतजाम खुद करने के लिए तैयार है अगर सरकार ये सुरक्षा वाजिब दामों पर उपल्ब्ध कराये। तो लोन माफ़ करने की जरुरत नहीं, जरुरत है तो बेहतर वि्कल्प और शिक्षा देने की।
यकीन नहीं आता तो आप खुद पढ़िये
http://epaper.dnaindia.com/epapermain.aspx

ये रहा लिंक, पेज नंबर 12..॥:)

May 28, 2010



ये खबर पढ़ के जितनी खुशी हुई उतना ही उस बच्चे के लिए खराब भी लगा। एक होनहार बच्चा सिर्फ़ गरीब होने की वजह से अपना सपना पूरा न कर पाये, ये नहीं होना चाहिए। पि्छले महीने का एक वाक्या याद आ गया। स्टाफ़ रूम में बैठे थे, मेरी सहकर्मी और सहेली रमा ने बताया कि एक लड़की है जो बहुत जहीन है लेकिन परिक्षा से कुछ दिन पहले से अनमनी है, पूछने पर पता चला कि उसके पिता उसे पटना के पास कोई गांव है वहां उसे दादी के पास भेज रहे हैं। पढ़ाई छुड़वा रहे हैं। उसके पिता को बुलाया है तुम जरा साथ रहना बात करने के लिए। हमने हामी भर दी
उस लड़की का पिता आया। बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ। पता चला कि वो मलाड स्टेशन पर बूट पॉलिश का काम करता है, चार बच्चे, पत्नी, छोटा भाई और उसका परिवार साथ में हैं जिनकी जिम्मेदारी इस के ऊपर है और अब बम्बई के खर्चे सहन नहीं कर पा रहा, इस लिए सबसे बड़ी लड़की की पढ़ाई छुड़वा रहा है और बाकि के तीन बच्चे गांव में पढ़ेगें। जब हमने वादा किया कि हम दो साल तक उसकी बड़ी लड़की और सबसे छोटी लड़की की जिम्मेदारी उठायेगें तो उसकी बांछे खिल गयीं और सारे लड़की की पढ़ाई छुड़वाने के सारे बहाने अपने आप हवा हो गये।

हम शिक्षकों ने निजी स्तर पर एक फ़ंड बना रखा है जिसमें हम हर महीने दो सौ रुपये दान खाते में डालते हैं और ऐसे बच्चों की मदद करते हैं। अभिषेक जिस के बारे में खबर छपी है कानपुर में है और कानपुर आय आय टी से पढ़ना चाहता है, आशा कर रही हूँ कानपुरवासी उसका सपना साकार करने में मदद करेगें। आमीन

May 24, 2010

रिटायर्ड लोगों के स्वर्ग की यात्रा



मार्च के अंत में चैटियाते हुए संजीत ने कई बार एक पोस्ट का लिंक देते हुए इसरार किया कि हम जरूर देखें। अब संजीत जैसे दोस्त की बात टालना बहुत मुश्किल है। सो अगले ही दिन हमने वो पोस्ट देखी/ पढ़ी। पढ़ते पढ़ते अपनी आखों की चमक हम खुद महसूस कर सकते थे। हंस हंस के बुरा हाल था। ये मनिषा से शायद हमारा पहला परिचय था। मतलब पहले भी देखा होगा उनका ब्लोग लेकिन इस पोस्ट से ही वो हमारी यादाश्त में रजिस्टर हुईं।

उनकी पोस्ट पढ़ते पढ़ते हमारा एक बहुत पुराना सपना फ़िर से हमारी आखों में उतर आया और उलहाना देने लगा कि तुम तो हम को भूल ही गयीं। ये सपना था बम्बई से बाहर हाइवे पर अपनी ड्राइविंग स्किल्स अजमाने का। बहुत साल पहले इसे सच करने की कौशिश की थी, बम्बई से इंदौर छोटे भाई के साथ जा रहे थे। अब छोटे भाई को हड़काना कौन मुश्किल काम है? बस कह दिया कि कार हम चलायेगें। बम्बई से भिवंडी तक हमने बड़ी शान से गाड़ी दौड़ाई और फ़िर जब हाइवे डायटिंग कर इकहरा हो लिया तो हमारी हिम्मत जवाब दे गयी थी। उसके बाद बस ये सपना हमारे ख्यालों की अलमारी में कहीं धूल खा रहा था।

अब इतने बरसों बाद मनीषा की पोस्ट ने इस सपने को फ़िर से धो पौंछ कर सामने खड़ा कर दिया। इतवार की सुहानी सुबह हमने चाय की चुस्कियों के साथ एलान कर दिया कि अगले इतवार हम अकेले पूना जायेगें, शाम को लौट आयेगें। पति देव ने हमारी तरफ़ ऐसे देखा जैसे हमारे सर पर सींग उग आये हों। दरअसल पति देव ने सोचा था कि भिवंडी यात्रा के बाद हमारा ये भूत उतर चुका है। खैर निर्णय ये लिया गया कि हम सुबह अकेले जायेगें, लंच खायेगें, शाम को मेरे पतिदेव और बेटा बहू दूसरी कार में पूना पहुंचेगें और वापसी में पति देव मेरी कार चलायेगें और बेटा और बहू दूसरी कार से वापस लौटेगें। हमें इसमें पुरुषवाद दिख रहा था। क्युं जी? वापसी में गाड़ी ये दोनों बाप बेटा क्युं चलायेगें, जितनी अच्छी(?) गाड़ी हम चलाते हैं बहू उससे कई गुना अच्छी चलाती है और उसे तो हाइवे का अनुभव भी है। खैर, योजनाएं बनने लगीं लेकिन बात टलती गयी। हम एक बार फ़िर भूलभाल गये, तब तक मनिषा की दूसरी पोस्टे आ गयी, जो उतनी ही मजेदार थीं।


मई के पहले हफ़्ते में हम एक हफ़्ते की छुट्टी पे केरला चले गये( ससुराल है भाई)। खूब मजे रहे( उसके किस्से अगली पोस्ट में)। वहां से लौटे और ऐसा लग रहा था कि भई अब तो जिन्दगी सेट है, खूब मजे की कट रही है। तभी हम पर एक गाज गिरी। बेटे को पूना जाने का आदेश मिल गया। हमारा रो रो कर बुरा हाल्। यूँ तो खुद को कई बरसों से तैयार कर रहे थे कि बेटे को अपने कैरियर के लिए कभी भी बम्बई छोड़ के जाना पड़ सकता है पर इतना अचानक होगाहम इसके लिए तैयार न थे।

बहू ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय देते हुए कहा कि बेटा पहले जायेगा और बहू को एक हफ़्ते बाद हम छोड़ने आयें। " मम्मा यू वानटेड टू ड्राइव अप टू पूना" हम मान गये। निश्चय ये हुआ कि पतिदेव भी साथ में आयेगें। पतिदेव उम्मीद कर रहे थे कि हम अंतत: कहें कि हम नहीं ड्राइव करेगें लेकिन हम ने ऐसा कुछ न कहा। गाड़ी स्टार्ट करने के पहले पतिदेव की हिदायतों का दौर शुरु हो गया
1। सीट बेल्ट पहन कर चलाओगी ( आई हेट देट)
2। एक्स्प्रेस वे पर लेन नहीं काटोगी
3)स्पीड 60 से ऊपर नहीं जायेगी
4) चौथी हिदायत देते हुए कहा मुझे मालूम है तुम मानोगी नहीं पर फ़िर भी कह रहा हूँ कि धूप से बचने के लिए ये खिड़की पे लगे ब्लांइड उतार दो ।
हम चुप रहे। इसमें से सिर्फ़ एक हिदायत का पालन किया, सीट बेल्ट पहन ली। शाम को करीब 4 बजे घर से निकले। पतिदेव के मुंह पर तनाव की रेखाएं साफ़ दिख रहीं थी। जैसे जैसे हम एक्स्प्रेस वे पर चढ़ते गये उनके चेहरे की वो रेखाएं गहराती गयीं। बार बार हिदायत -- लेन मत काटो, स्पीद कम करो। हमने झुंझला कर कहा हमने तो एक्सेलेटर पर पांव ही नहीं रखा हुआ॥:)
वो बोले ये नब्बे की स्पीड जो दिख रही हैक्या हवा गाड़ी को धकिया रही है?
अब ऐसा था जी कि गाड़ी किस स्पीड से भागेगी ये हम नहीं डिसाइड कर रहे थे ये तो रेडियो पर बजते गाने डिसाइड करते थे। रेसी गाना हो तो गाड़ी भी भागे और सेड गाना हो तो गाड़ी भी थोड़ी स्लो।
पतिदेव ने सोचा कि गाड़ियों के बारे में हमारा ज्ञानवर्धन करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा। मौका भी है दस्तूर भी। सो हमारी क्लास लग गयी।ये गाड़ियां इतनी हाई स्पीड पर जाने के लिए नहीं बनीं, स्पीडोमीटर के डायल पर मत जाओ। बहू पीछे बैठी मंद मंद मुस्कुरा रही थी। जब पतिदेव ने देखा कि हम मंद बुद्धी हैं और उनकी क्लास का कोई असर हम पर नहीं हो रहा तो उन्हों ने दूसरा हथियार अख्तियार किया। खपोली पार हो चुका था, हमारा ध्यान बंटाने के लिए उन्हों ने कहा, अब चाय के लिए रुका जाए। उन्हें उम्मीद थी कि चाय पीने के बाद वो स्टेरियंग व्हील अपने हाथ में ले लेगें, लेकिन ऐसा नहीं होना था सो न हुआ । हमने घाट चढ़ने का मजा लिया, फ़िर एक्स्रेस वे छोड़ पुराने हाई वे पे आ गये। करते करते अब शाम घिर आयी। देहू रोड पहुंचते पहुंचते सामने से आने वाली गाड़ियों की बत्तियां हमें परेशान करने लगीं। तब हमने कहा कि 'अच्छा लो'…।पति के मुंह पर शांती की जो चमक आयी वो तो बस देखने ही लायक थी, लगता था मानों किसी को फ़ांसी के तख्ते से ऐन मौके पर नीचे उतार दिया गया हो।

अब जगह जगह पूछा जा रहा था ' ए भाऊ, ये यरवदा जेल किधर है?' किसी पुलिस वाले से नहीं पूछा, 'कहीं कह दे कि जाना है क्या? चलो मैं पहुंचा दूँ'। आखिरकार करीब साड़े आठ बजे हम यरवदा जेल के सामने खड़े थे। घुप्प अंधेरा पर रोड पर गाड़ियों की आवाजाही। कुछ ही दूरी पर बेटे का ऑफ़िस्। बताया गया कि ये पूना के पोश इलाकों में से एक हैं । हमारी हंसी नहीं रुक रही थी। जेल और पोश एरिया, सही है बॉस, आज कल के नेता और भाई लोग, जेल तो पोश ऐरिया होगा ही।
खैर वहां से बेटे की गाड़ी के पीछे पीछे कल्याणी नगर पहुंचे उसके गेस्ट हाउस में। बेटे ने कहा जल्दी से चलो, खाना खाने के लिए यहां रेस्त्रां जल्दी बंद हो जाते हैं। हमने घड़ी देखी अभी तो नौ बजे थे, लेकिन पता चला यहां दस/ग्यारह बजे तक सब बंद हो जाता है। ह्म्म ! इसी लिए इसे रिटायर्ड लोगों का स्वर्ग कहा जाता था। सुबह करीब सात बजे उठे तो देखा नौकर समेत सब सो रहे हैं। हमने बाहर के नजारे का आनंद लेना शुरु किया, इतवार का दिन, सुबह आठ बजे का समय, निस्ब्धता इतनी कि अपनी ही सांसों की आवाज शोर लगे। न चिड़ियों की चह्चाह्ट, न गाड़ियों की आवाजाही की आवाज, न बच्चों की आवाज, न किसी बाल्कनी में बैठे किसी मनुष्य के अखबार के पन्ने पलटने की आवाज्।
करीब दस बजे नौकर महाराज अवतरित हुए तब जा कर एक प्याला चाय का नसीब हुआ। बाकि के लोग अब भी सो रहे थे। हम दोनों अखबार पढ़ने लगे। अखबार के चौथे पन्ने पर पहुंचे तो यहीं महाराष्ट्रा में एल पी रिकॉर्ड की एक प्रद्र्शनी के बारे में जानकारी दी गयी थी। जिसमें आज से सौ साल पहले के रिकॉर्ड्स भी थे। अभी कुछ दिन पहले दिलीप कवथेकर जब घर पर आये थे तो बता रहे थे कि इंदौर के पास के किसी गांव में एक गरीब किसान के पास भी ऐसा ही कुछ खजाना है और दिलीप जी ने अपने कुछ मित्रों के साथ मिल कर पैसा जमा कर उसे दिया ताकि वो उस खजाने की अच्छे से देखभाल कर सके और वो खजाना समय के अंधेरों में खो न जाए।
हमने तुरंत उनको फ़ोन लगा इस प्रदर्शनी की जानकारी दी। पता चला कि उनकी बेटी भी पूना में कार्यरत है। ये दुनिया कितनी छोटी है न? खैर नाश्ते के बाद हम वहां से लौट लिए। अच्छी पत्नी होने के नाते पति कि सेहत का ख्याल करते हुए हमने गाड़ी चलाने की जिद्द न की। बस रास्ते में जब जब पतिदेव ने लेन काटी, स्पीड 80 के ऊपर गयी, उन्हें उनकी क्लास याद दिलायी॥:)
आते आते एक काम और कर आये, बहू की आखों में सपना भर आये कि वो अगले साल की कार रैली में हिस्सा ले, कहिए कैसी रही…:)


बोर तो नहीं हुए न?