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September 26, 2008

चाँद की सैर

चाँद की सैर


सुबह के सात बजते ही एफ़ एम गोल्ड पर पहले गाने की स्वर लहरियां गूंजी । " चांद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर्…",


अहा! जब दिन की शुरुवात इतनी मधुर है तो दिन तो मधुमास ही समझो। कार में रेडियो सुनने का मजा ही कुछ और है। बंद खिड़कियां, ए सी की ठंडक, आस पास की चिल्ल पौं को नो एन्ट्री, पूरा डब्बा(कार) संगीतमय हो लेता है। हाई वे पर तेज और तेज सरपट दौड़ती कार और संगीत की स्वर लहरियां , वक्त मानो थम सा जाता है। ये आधा घंटा पूरे दिन का सबसे हसीन वक्त होता है जब हम अपने साथ होते हैं।


वाशी सिगनल पार करती हिचकोले खाती कार, हम सोच रहे थे आज कल चकौर तो न दीखते बम्बई में, हां यहां की सड़के जरूर चांद के प्रेम में चंद्र्यमान हो रही हैं। सिगनल पार होते ही पीछे से कुछ हल्की हल्की आवाज आने लगी। कार के हिचकोलों ने शायद पीछे रखे औजारों को जगा दिया था और अब वे भी अपना बेसुरी तान जोड़ कर पूरे संगीत का मजा चौपट कर रहे थे। पड़ौसन से गपियाती मां अक्सर बच्चे की कुनमुनाहट को नजर अंदाज कर जाती है, हम भी फ़िर संगीत में खो गये।


दस किलोमीटर के करीब और आगे जाते जाते पीछे की खटर पटर इतनी बड़ गयी मानों भारत पाक सीमा पर गोला बारी हो रही हो। मजबूरन रुकना पड़ा। भुनभुनाते हम नीचे उतरे कि आज इन औजारों की अच्छी खबर लेते हैं , न वक्त देखते हैं न मौका जब देखो बजते रहते हैं। देखा तो औजार बिचारे तो चुपचाप बैठे थे लेकिन पीछे के टायर के परखच्चे उड़ चुके थे, बियोंड रिपेअर। अब इतनी सुबह कौन से टायरवाले की दुकान खुली होगी। आसपास देखा तो सब दुकानें बंद सिर्फ़ एक चाय वाला अपना भाखड़ा सजाए खड़ा था, सड़क पर ही एक बैंच डाल रखा था, कुछ ऑटो वाले बैठे अखबार के साथ सुबह की चाय का आनंद ले रहे थे, धंधे पर निकलने के लिए अभी बहुत जल्दी थी। उनमें से कोई भी हमारी खातिर अपनी चाय और अखबार का अलसाया आनंद छोड़ने को तैयार नहीं था। कलीम( हमारा हमेशा का टायर वाला) की दुकान तो खुली होगी लेकिन वो भी अभी कम से कम एक डेढ़ किलोमीटर दूर थी और गाड़ी तो अब अपने पैरों को सहलाती टस से मस न होने की मुद्रा में बैठी थी।


जैसे तैसे कलीम को लिवाने उसकी दुकान पर पहुंचे। कलीम की दुकान के बाहर ही उसका एक दोस्त अपनी ऑटो में बैठा दूसरे ऑटो वाले से बतियाता दिख गया। कार के पास पहुंचते ही इस ऑटो वाले को भी चाय की तलब उठी, कलीम को चाय पीने के लिए आने को कहते हुए वो उस तरफ़ बढ़ चला, ठिठका, मुड़ा और पूछा ऑंटी चाय पियेगीं।

हैरानी को छुपाते हुए हमने न में सर हिलाया और मोबाइल पर व्यस्त हो गये।


बम्बई के टैक्सी, ऑटो वालों के दोस्ताना अंदाजा के बारे में जानते तो थे पर ये तो हद्द ही थी। अगर हम उसका निमंत्रण स्वीकार कर लेते तो कल्पना कीजिए कि रोड पर रखी बैंच पर अपनी सफ़ेद वर्दी में बैठे चार पांच ऑटो वाले और हम, हाथ में गरमागरम कटिंग चाय, पास में नगर निगम का झाड़ू लगाता जमादार और उस के झाड़ू से उठती धूल चाय का स्वाद बड़ाती। बाप रे!


विनोद जी को फ़ोन पर सुबह के समाचारों की तर्ज पर पूरी स्थिति का जायजा देते हुए पूछा इस फ़टे टायर का क्या करें? जवाब आया "फ़ैंक दो, दूसरा खरीद लो"। तब तक कलीम अपना काम कर चुका था, और फ़टे टायर को डिक्की में रखने की तैयारी में था। हमने कहा भैया इसे फ़ैंक दो और अगर तुम्हें चाहिए तो तुम ले जाओ। उस की आखें कैरम की गोटी जितनी चौड़ाई, पर कुछ बोला नहीं, चुपचाप फ़टा टायर ऑटो में रखा और चाय के भाकड़े की ओर बढ़ गया। हम इस बात पर खुश कि चलो लेक्चर के लिए टाइम पर पहुंच जायेगें। साथ ही सोच रहे थे, बेचारा! क्या करेगा इस तार तार हुए टायर का, न ट्युब बची न बाहर का टायर, ज्यादा से ज्यादा अंदर का लोहा बेच लेगा, पांच रुपये किलो।


तब तक कॉलेज आ गया और पूरा वाक्या जहन से खिसक लिया। दोपहर घर जाते वक्त सोचा कि चलो स्टेपनी के लिए एक पुराना टायर ही खरीद लिया जाए। सुबह कलीम से पूछा था, उसके पास तो मेरी गाड़ी के योग्य कोई टायर नहीं था पर अंदाजन पांच सौ तक आ जाएगा ये जानकारी उसने दे दी थी। दूसरी दुकान पर टायर उपलब्ध था, हमने पूछा कितने का? बोला आठ सौ। हम मन ही मन मुस्कुराए, अच्छा बेटा, हमें पागल समझा है क्या? बोले “नहीं हम तो पांच सौ देगें।”

थोड़ी ना नुकुर के बाद सौदा तय हुआ कि पांच सौ का पुराना टायर और तीन सौ की नयी ट्युब और फ़िटिंग फ़्री।


हमने बड़े विजयी भाव से डिक्की खोली, कहा “रख दो”।

उसके चेहरे पर उलझन देख पूछा “क्या हुआ,”?

“काय में फ़िट करूं टायर, रिम कहां है?”

अब चौंकने की बारी हमारी थी।

अरे! तुम टायर दोगे तो रिम न दोगे साथ में, बिना रिम टायर कैसा?

हमारी बेवकूफ़ी पर खिलखिलाते हुए बोला,

“मैडम! आप हो किस दुनिया में, नया टायर भी रिम के साथ नहीं आता। रिम लेने को जाओगे तो आठ सौ और देना पड़ेगा। वैसे आप ने रिम का किया क्या?”

हमने दबी आवाज में कहा “वो तो हमने सुबह फ़ैंक दिया मतलब टायर वाले को दे दिया”।

“हे भगवान! कौन से टायर वाले को दिया? अभी का अभी जाओ और उस से अपना रिम वापस मांगो”

मन कह रहा था अब समझ में आया कलीम ने वो तार तार टायर क्युं सहेज के ऑटो में रख लिया था, बोले

“अब वो हमें क्युं वापस करेगा। वो कह देगा कि वो तो हमने बेच दिया तब हम क्या कर लेगें।”

“अरे मैडम आप जा कर उसे मेरा नाम बोलना वो रिम वापस कर देगा।”

हमें कोई उम्मीद तो न थी पर फ़िर भी पूछने में क्या जाता है सोच वापस मुड़ लिए। कलीम की दुकान पर पहुंचे। बाहर से ही इशारे से बुलाया।

सकुचाते सकुचाते पूछा

“वो रिम्”।

वो मुस्कुराया, मानो कहता हो सुबह तो बड़ी ठसक से कह गयी थी फ़ैंक दो। खीसे निपोरता हुआ रिम ले आया

“हैं हैं हैं! मैं तो तभी जानता था कि आप वापस आयेगीं, इसी लिए अलग रख दिया था”।

चैन की सांस लेते हुए हमने धन्यवाद की मुस्कुराहट फ़ैंकी और लौट लिए। हाथ रेडियो की तरफ़ बढ़े, “नहीं, नहीं दोपहर को अभी इतने अच्छे गाने नहीं आते न जो हमें चांद पर पहुंचा दें। वैसे भी ये चाँद की सैर बहुत महंगी है।”……है न?……J

September 14, 2008

जानने का हक है



जानने का हक है

आज की ताजा खबर ये है कि विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि हमारा दिमाग और मन छुट्टी से लौट रहे हैं। आज 14 सेप्टेंबर है, गणपति जी के जाने का दिन आ गया, हर साल की तरह इस साल भी बरखा की झड़ी लगी है। ऊपर की फ़ोटो हमारे कमरे की बैकसाइड है लेकिन इसमें बरसती बरखा का जो आनंद हम ले रहे हैं वो आप को दिखाई नहीं दे पाएगा। सागर जी ने बताया कि इस बार उन्होंने अपने घर गणपति जी जी आराधना हमारे ब्लोग पर लगी आरती से की। जान कर अच्छा लगा कि उन्हें भी ये आरती पसंद आयी।


नीरज जी का न्यौता

हमें याद आ रहा है 7 सितंबर, इस महिने का पहला इतवार्। सितंबर शुरु होते ही नीरज भाई का न्यौता आया था "अनिता जी आते इतवार को खपोली में कवि सम्मेलन का आयोजन किया है आप जरूर आइयेगा।" न्यौता आने के ठीक एक मिनिट पहले हम उनके बलोग पर खपौली में बहते बरसाती झरनों का आनंद उठा कर आ रहे थे। ऐसी बरसात और ऐसे झरनों को देख किसका मन न मचल उठेगा। मन तो ललचाया लेकिन अकेले इतनी दूर हम कभी गये नहीं । विनोद जी को पूछा " ले चलोगे?" बोले कोई ओप्शन है क्या? हम हंस दिये।


अभी जाने में एक सप्ताह बाकी था, दो दिन बाद कुलवंत जी का फ़ोन आया, खपौली चलने का न्यौता दोहराते हुए कहा कि बम्बई से कुछ पंद्रह लोग जा रहे हैं इस लिए हम बस कर रहे हैं । हमने कहा हम भी फ़िर बस में ही चलेगें। सिर्फ़ प्रकृति के साथ ही नहीं लोगों के साथ भी तो जुड़ना था। विनोद जी को पता चला तो उन्होंने राहत की सांस ली। हमारे बहुत ललचाने पर भी वो किसी कवि सम्मेलन को झेलने के लिए तैयार न थे। ये सोचते हुए कि हर आदमी को हफ़्ते भर कड़ी मेहनत करने के बाद एक दिन अपनी मर्जी से बिताने का हक्क है हमने भी साथ आने पर जोर नहीं दिया।

वो इतवार आ ही गया। इंद्र देव हम पर मेहरबान थे, रास्ते भर बरसात की फ़ुहारों का मजा लेते अंताक्षरी खेलते करीब डेढ़ घंटे में हम खपौली पहुंचे। खेल तो रहे थे अंतक्षारी लेकिन मन ही मन बस में बैठे सहयात्रियों पर नजर डाली तो देखा सिर्फ़ एक लड़की, महिमा ,को छोड़ दें तो सब या तो पचास पच्च्पन को छू रहे थे या उससे भी कहीं आगे निकले हुए थे। गाने वालों में महिमा ही सबसे खामोश थी बाकी सब बेसुरे गा रहे थे।

बैरन यादाश्त
भूषण स्टील पहुंचते ही नीरज जी अपने कुछ साथियों के साथ गेस्ट हाउस के बाहर ही स्वागत करते मिले। दुआ सलाम होते ही हम सब के आराम करने के लिए कई कमरे खोल दिए गये। मैं, महिमा, आशा शर्मा जी और अनामिका शाहनी एक कमरे में थी बाद में रेखा रौशनी जी भी हमारे कमरे में आ गयीं। एक बजे का वक्त, चाय के शुरुआती दौर के साथ आपस में परिचय का दौर चला। कुछ देर बाद अनामिका जी ने हमसे पूछा आप ने आशा जी को नहीं पहचाना? हमने ध्यान से उनकी तरफ़ देखा, दिमाग पर बहुत जोर दिया, कहीं किसी कवि सम्मेलन में, किसी ब्लोग पर देखा है क्या? लेकिन क्या करें हमारे दिमाग और मन की तरह हमारी यादाश्त भी हमारे बस में नहीं रहती ऐन मौके पर दगा दे जाती है। हमसे कुछ शर्मसार होते हुए हल्की सी मुस्कुराहट के साथ ना में सर हिलाया।

अनामिका: अरे ये बहुत सारी फ़िल्मों में और टी वी सिरियलों में आ चुकी हैं अमिताभ बच्चन की मां का रोल भी निभा चुकी हैं। हमने आखें चौड़ी कर अपनी यादाश्त को झकझोरने की कौशिश की लेकिन वो टस से मस नहीं हुई। आशा जी ने हल्की सी मुस्कुराहट से हमें माफ़ किया। हमने उन्हें न पहचानने के अपराध की क्षमा मांगी और उन्हों ने तपाक से माफ़ कर दिया। जो हमने उनसे नहीं कहा वो ये कि जब हम अमिताभ बच्चन की फ़िल्म देखते हैं तो सिर्फ़ अमिताभ बच्चन को देखेगें न उसकी मां को थोड़े ही देखेगें। खैर, इस परिचय कार्यक्र्म के बाद खाने का दौर आया और फ़िर वापस हम अपने अपने कमरों में। कवि सम्मेलन शाम को 4 बजे शुरु होना था। अब गप्पबाजी का दौर चला। अनामिका जी किसी और कमरे में चली गयीं जहां उनके एक दूसरे मित्र ठहरे हुए थे।

आप की आवाज
आशा जी से गपियाते हुए हमने जो एक बात नोट की वो ये कि उनके व्यवहार में,वेश भूषा में, बातचीत में लेशमात्र भी फ़िल्मीपन नहीं था। एक बार भी उन्होंने ये जताने की कौशिश नहीं की कि वो फ़िल्मों से जुड़ी हैं और फ़िल्म आर्टिस्ट्स ऐसोशिएन कार्य समिति की मेम्बर हैं। उलटे वो हमारी ही तारिफ़ करने लगीं कि आप की आवाज सुन कर ऐसा लगता है कि आप अच्छा गाती होगीं, हमने हंस कर कहा जी गाती तो नहीं अल्बत्ता चिल्लाती जरूर हूँ। पलट कर पूछने लगीं फ़िल्मों में काम करोगी और हम ठठा कर हंस दिये लेकिन देखा वो तो एकदम सिरियस चेहरा लिए हमारी तरफ़ देखती रहीं। इतने में रेखा जी आ गयी और रेखा जी जहां हों वहां किसी और को बोलने का मौका मिलना मुश्किल है। बस यूं ही चार बज गये और हम सब हॉल में जा डटे।

दुर्घटना
मरियम गजाला, मिश्रा जी, कुलवंत जी, चेतन शाह, देवी नाग रानी, अनामिका जी, रेखा रौशनी जी, महिमा और भी न जाने कितने ही कवि वहां जमा थे। देवमणी पांडे जी ने मंच संभाला और एक एक कर कविताओं का दौर शुरु हुआ। हम इन शब्दों के सागर में आनंद विभोर होते मजे लूट रहे थे कि अचानक हम पर गाज आ गिरी जब देवमणी पांडे ने अचानक हमारा नाम ऐनाउंस कर दिया। हम हक्के बक्के उनको देख रहे थे, ये बिल्कुल अप्रत्याशित था, हम उन्हें इशारे से मना कर रहे थे कि तभी तपाक से हमें बुके भी पेश कर दिया गया, अब मरता क्या न करता कि तर्ज पर स्टेज पर जाना ही था। हम हाथ में कोई कविता लाए नहीं थे और याद हमें कुछ रहता नहीं है। मन कर रहा था कि धरती फ़ट जाए और हम उसमें समा जाए या जोर से तुफ़ान आ जाए और लोगों का ध्यान बंट जाए। हमने बड़ी असहाय नजर से देवमणि जी की तरफ़ देखा। बड़ी सहानुभूती जताते हुए बोले कि ठीक है आप अपना परिचय ही दे दिजिए, हम पता नहीं क्या बोल कर आ गये। बाद में कुलवंत जी और देवमणी जी ने हमसे माफ़ी मांगी कि इस तरह हमें ऐसी परिस्थति का सामना करना पड़ा। उन्हें इस बात का विश्वास था कि हर कवि अपनी जेब में अपनी एक दो कविताएं तो ले कर घूमता है और जैसे लोग बात बात में अपने विजिटिंग कार्ड निकाल कर बांटते हैं वैसे ही हर कवी हर जगह अपनी चार लाइना तो ठेलता ही रहता है। उनके हिसाब से हमें शुक्रगुजार होना चाहिए था कि हमें मौका दिया गया, अब उन्हें कैसे बताते कि हम तो कवि हैं ही नहीं न्। कविता सुनना और लिखना दो अलग अलग बाते हैं।खैर, सिर्फ़ इस दुर्घटना के सिवा दिन बहुत अच्छा बीता। नीरज जी की खातिरदारी देख कर ऐसा लगता था मानों हम सब बराती हैं जो बिना दुल्हे के आ गये हैं। वापस लौटने के समय ही पता चला कि जिस बस से हम इतने आराम से खपौली आये हैं और वापस जा रहे हैं वो नीरज जी की भेजी हुई है।

वापसी में देवमणी पांडे जी सबको एक दूसरे कवि सम्मेलन में आने का निमंत्रण दे रहे थे जो हमारे घर के पास ही नेरुल में होने वाला था। बात आयी गयी हो गयी। परसों अरविंद राही जी ने फ़ोन दनदनाया और उसी नेरुल वाले कवि सम्मेलन में आने का आग्रह किया, ये हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित सर्व भाषा साहित्य सम्मेलन था। इसमें भी कई कवि नजर आये। देवी नागरानी ने सिंधी में कविता पढ़ी तो महात्रे साहब ने मराठी में, विष्णु शर्मा ने पंजाबी में पढ़ी और किसी ने मैथली में। लेकिन सबसे ज्यादा आंनद आया हमें जफ़र रजा साहब को सुनने का।

उनके कुछ शेर जो मुझे याद रहे सुनिये

नफ़स नफ़स तुझे महसूस कर रहा हूँ मगर,
दिखाई देता है सदियों का फ़ासला मुझको।

सितम थी या कि अदा थी हिजाब था क्या था,
मेरे रहे मगर अपना नहीं कहा मुझको।


खुशनुमा दिन

वैसे कल का दिन बहुत ही खुशनुमा दिन था, सुबह एक वीडियों देखा था "जानने का हक" और ये मेरे जेहन में ऐसा अटका कि अब तक नहीं निकला। इसे देखा तो था राइट टू इन्फ़ोरमेशन के संदर्भ में, लेकिन इस ऐक्ट के बारे में लिखने का हक्क दिनेशराय द्विवेदी जी को है। हम उम्मीद कर रहे हैं कि वो हमें इसके बारे में डिटेल में बतायेगें। अभी तो आप ये वीडियो देखें, मुझे पूरी उम्मीद हैं कि आप को भी अच्छा लगेगा, वैसे ये भी हो सकता है कि आप में से कइयों ने इसे पहले देखा होगा, लेकिन अच्छी चीज एक बार और देखी जा सकती है, है न?

September 02, 2008

मोरया रे बप्पा मोरया रे



मोरया रे बप्पा मोरया रे

कल गणेश चतुर्थी है। महाराष्ट्र में गणेश पूजा का महत्त्व उतना ही है जितना बंगाल में दुर्गा पूजा का। चारों तरफ़ हर्षोल्लास का वातावरण है, ये बिगुल है कि त्यौहारों का मौसम आ चला। अब बीच में श्राद्ध पक्ष को छोड़ दें तो दिवाली तक सब तरफ़ रौनक रहेगी। चतुर्थी तो कल है लेकिन अभी से सड़कों पर बजते ढोल मजींरों की आवाज हमारे अंदर के कमरे तक आ रही है।


कल सुबह से ही आरतियों का दौर जो शुरु होगा तो दस दिन तक थमेगा नहीं। जहां एक तरफ़ लता मंगेशकर के स्वर गूंजेगें वहीं अनूप जलोटा के स्वर भी पूरे वातावरण को भक्तिमय बना देते हैं। खास कर उनका एक भजन मुझे बहुत अच्छा लगता है
"जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े " इस भजन में केवट की हौशियारी को अनूप जलोटा ने इतना मजे ले कर गाया है कि जब भी सुनते है मुस्कराये बिना नहीं रह पाते। वैसे गणेश जी की आरती तो सब जगह ही होती है लेकिन मराठी में गणेश आरती इतनी मधुर है कि जिसे मराठी नहीं समझ आती वो भी झूमे बगैर नहीं रह सकता। मेरी पंसद की दो आरतियां मराठी में प्रस्तुत कर रही हूँ , आशा है आप को भी इन्हें सुनने में उतना ही मजा आयेगा जितना हमें आता हैं। हम तो ये दोनों आरतियां दस दिनों तक हर गली कूचे में सुनेगे और इनके साथ जाती हुई बरसात का आंनद भी लेगे। सोचा आप के साथ भी ये आंनद बांट लें







अगर आप को आरतियां अच्छी लगे और इसके बोल जानना चाहेगे तो मुझे युनूस जी के दरवाजे पर गुहार लगानी पड़ेगी…।:)